अग्नि की लौ में सिमटकर क्यों न एक दीपक बन जाऊं
तम प्रकाश का बनकर जाली तम का नाम मिटाऊं ,,
जलकर खुद ही दूजों को , मैं रोशन कर जाऊं
छोड़ स्वार्थ परोपकार में,मैं अपना जीवन बिताऊं ,,
खुद के आभाव मिटा सकूँ न पर दूजों के आभाव मिटाऊं
जीता रहूँ दूजो के लिए , दूजों के लिए ही मर जाऊं ,,
ज्वाला है दीपक की रानी ,गीत ज्वाला के गाऊं
गिने मुझे ही रोशनी , मैं सबको लौ दिखाऊं ,,
लेकिन परिस्थिति देखकर कभी न मैं घबराऊं
आंधी तूफानों से टकराकर भी न बुझाने पाऊं ,,
कठिनाइयों को देखकर ,क्या एक " छाया" बन जाऊं
नहीं नहीं जब प्रण किया तो असंभव नहीं जो कर न पाऊं ,,
इससे पहले कि अंत हो मेरा शून्य में मैं मिल जाऊं
दूजों को रोशन करने के सारे काज पूर्ण कर जाऊं ,,
फिर चिन्ह छोड़ मरू के जीवन में एक हिचक भर भुझ जाऊं
दुनिया क़ी नज़रों की रात्रि का , एक चाँद मैं बन जाऊं ,,,,,,, अजय आजाद
IIT DELHI
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